*अफसरी के बाद नेतागिरी क्यों*
—————————————–
राजस्थान में जल्द होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए पूर्व आईएएस,आईपीएस, जज एवं अन्य प्रशासनिक सेवा में रहने वाले अधिकारियों ने राजनीतिक दलों का दामन थामना शुरू कर दिया है। फिलहाल इनमें भाजपा को लेकर ज्यादा उत्साह है,क्योंकि राजस्थान के राजनीतिक हलकों में बह रही हवाओं से लग रहा है कि राजस्थान में एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा की सरकार बनने की परंपरा तमाम मुफ्त की योजनाओं और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मेहनत के बाद भी टूटना मुश्किल है। ऐसे में भाजपा में पूर्व अफसरों और न्यायिक अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया है। जब भी ऐसे लोगों को कोई पार्टी अपनी सदस्यता देती है,तो यही कहा जाता है कि उन्हें बिना शर्त पार्टी में शामिल किया गया है और ऐसे अफसर भी यही कहते हैं कि वह संबंधित पार्टी की विचारधारा से प्रभावित होकर जनसेवा करने की भावना से उसमें शामिल हो रहे हैं।
■लेकिन हकीकत ये है कि इनमें से कोई भी सेवा भावना से नहीं,बल्कि सिर्फ और सिर्फ सत्ता की लालसा और उसके लाभ पाने के लिए राजनीतिक चोला पहनते हैं। इसमें भी इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं कि चुनाव में किस पार्टी के जीतने की संभावना ज्यादा है। ताकि दुपट्टा उसी का ओढकर उसी का झंडा उठाया जाए। क्योंकि उनके शामिल होने के साथ कि वो किस विधानसभा क्षेत्र से दावेदार होंगे, ये खबरें चलने लगती है।
■दरअसल,तीस-पैतीस साल तक आईएएस,आईपीएस एवं न्यायिक अधिकारी रहने के दौरान पद का जलवा और प्रभाव,मिलने वाली सुविधाएं तथा परोक्ष और अपरोक्ष लाभों पर ये लोग इतने आश्रित हो जाते हैं कि जब सेवानिवृत्ति होती है, तो उन्हें लगता है कि उनके नीचे से सुविधाओं की जमीन खींच ली गई है। अफसरी के दौरान सलाम ठोकते कारिंदे,सिर झुकाते लोग,अंहकार भरी भाषा,रहने के लिए बड़े-बड़े बंगले,घर पर नौकरों की फौज, बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने तथा पत्नी की शॉपिंग और घूमने के लिए सरकारी गाड़ियां और खर्च होने वाली रकम के लिए अपनी जेबें खोलकर तैयार रहने वाले दलाल किस्म के लोग। यह सभी रिटायरमेंट के बाद एकाएक गायब हो जाते हैं। ऐसे में इन्हें राजनीति का मैदान याद आता है,क्योंकि आज भारत में नेता और अफसर ही आधुनिक राजा-महाराजा है। जो सेवा के नाम पर जनता पर राजाओं जैसे शासन कर रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों को भी चुनाव से पहले माहौल बनाने के लिए इस तरह की नौटंकी करनी पड़ती है और बड़े पूर्व अधिकारियों को पार्टी में लेकर लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि पार्टी की विचारधारा कितनी सकारात्मक और मजबूत है कि बुद्धिजीवी अधिकारी भी उसमें शामिल हो रहे हैं। बिना शर्त शामिल, इसलिए कहा जाता है ,ताकि लोगों में संदेश नहीं जाए की जातिगत और सीटों का समीकरण बैठाने के लिए उन्हें शामिल किया गया है।
■सवाल ये है कि क्या जनसेवा या समाज सेवा करने के लिए राजनीति करनी जरूरी है और क्या विधायक या सांसद बनकर ही यह सेवा की जा सकती है? क्या ऐसे अधिकारी पार्टी को लिखकर देते हैं कि वह चुनाव में टिकट नहीं मांगेंगे,केवल पार्टी का प्रचार प्रसार ही करेंगे या पार्टी उन पर यह बंदिश लगाती है कि पार्टी में आने के कम से कम 5 साल बाद तक उन्हें किसी भी चुनाव का टिकट नहीं दिया जाएगा? ऐसे पूर्व अधिकारियों को पार्टी में शामिल करते ही तुरंत टिकट दे दिया जाना क्या कार्यकर्ताओं व नेताओं के साथ ज्यादती नहीं है, जो सालों से पार्टी की मजबूती के लिए जी- जान से इस उम्मीद में कार्य करते हैं कि उन्हें कभी तो चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा? पार्टी चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी, उसके कार्यकर्ताओं को भी ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए जो 30-35 अफसरी करने के बाद पार्टी का दामन थामते हैं और तुरंत टिकट लाकर विधायक या सांसद बन जाते हैं और उन्हें मुंह चिढ़ाते हैं।राजस्थान में ऐसे कई नेता है जो आईएएस व आईपीएस से सेवानिवृत्त होकर (कुछ तो समय से पहले रिटायरमेंट लेकर) विधायक,सांसद और मंत्री बने हैं। इस बार के चुनाव में भी ऐसे कई चेहरे कांग्रेस और भाजपा से मैदान में उतरने की उम्मीद है। उनका पार्टी में आना इसी बात की निशानी है यानी कार्यकर्ताओं का हक ऐसे ही मारा जाएगा।
■ इससे भी ज्यादा अचरज उन पूर्व विधायकों-सांसदों को लेकर होता है, जो पहले पार्टी छोड़ जाते हैं और चुनाव आने के साथ ही फिर लौटकर आ जाते हैं। इनके लिए पार्टी कहती है कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है। लेकिन सवाल ये है कि वह घर से गया ही क्यों था। यह वह नेता होते हैं, जिनका स्वार्थ अपनी पार्टी में सिद्ध नहीं होता है,तो दूसरी पार्टी में चले जाते हैं और जब वहां भी काम नहीं बनता, वापस मूल पार्टी में लौट आते हैं। इनमें से कई नेता तो सत्ता के साथी होते हैं, जो पार्टी राज में आती है उसका दामन थाम लेते हैं और उसका राज जाते ही नए ठिकाना बदल लेते हैं*