समुद्र मंथन की कथा मन के मंथन की कथा है’
गुरू के बगैर ज्ञान अधूरा -शास्त्री
रायला के रामपुरिया में चल रही कथा श्रीमद् भागवत के चौथे दिवस की कथा प्रारंभ करते हुए पंडित पवन शास्त्री ने बताया कि जीव मात्र इस संसार रूपी सरोवर में आकर भोग-विलास रूपी जल क्रीड़ा में लग जाता है परन्तु भूल जाता है कि काल उसे कभी भी पकड़ सकता है वह कभी किसी को नहीं छोड़ता है। गजेंद्र मोक्ष की कथा को समझाते हुए बताया कि जीव ही तो गजराज है और गृह रूपी काल के मुख का ग्रास बना हुआ है यदि उसके श्राप से बचना हो तो केवल एक ही साधन है और वह है अति स्वर से भगवान को पुकारना। मनुष्य का व्यवहार हाथी स्नान जैसा ही है हाथी स्नान करने के पश्चात अपने ऊपर पुनः कीचड़ डाल देता है और मनुष्य भी सत्संग में जब तक बैठा हो तब तक ठीक है, और जैसे ही घर जाता है पुनः उसी विषय वासना का कीचड़ अपने ऊपर डाल देता है लेकिन जब संसार से ठोकर लगती है तो सांवरिए को याद करता है और उसके स्वर सुन सांवरिया सेठ उसे मुक्त कर देता है।
समुद्र मंथन की कथा को विस्तार से सुनाते हुए बताया कि समुद्र मंथन की कथा मन के मंथन की कथा है जैसे समुद्र मंथन में पहले-पहल जहर निकला वैसे ही मन के मंथन अर्थात भक्ति के मार्ग में जीव को पहले उपहास, निंदा रूपी जहर की ही प्राप्ति होती है जैसे मीरा बाई को हुई परंतु अंत में अमृत भी उन्हीं को मिला। जिन्हें नारायण पर भरोसा था संसार की चिंता किए बगैर कि गई भक्ति ही जीव को अमृत प्रदान करती है।
कथावाचक शास्त्री ने वामन अवतार की कथा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मांगने वाला हमेशा छोटा होता है अतः भगवान को बलि से मांगना था तो वह भी वामन हो गए और राजा बलि जिसे अपने वैभव का अभिमान था उसे समाप्त करने और बलि का सर्वस्व हरण करने के लिए वामन भगवान उसके द्वार पर पधारे और सब कुछ हरण कर लिया। अतः जीव को धन-सम्पति का कमी अभिमान नहींं करना चाहिए।
भगवान अपना मान कम करवा सकते है लेकिन अपने भक्त का मान कम हो, यह उन्हें नही जंचता है। दुर्वासा ऋषि द्वारा अंबरीश को मानने के प्रयास से क्रोधित होकर दुर्वासा को सुदर्शन चक्र के द्वारा कष्ट उठाना पड़ा परंतु जब दुर्वासा को भगवान नारायण ने कहां की जाओ अंबरीश से क्षमा मांगो तो ही तुम्हे इस चक्र के भय से मुक्ति मिलेगी अतः संसार में भगवान के भक्त का कभी उपहास करें।