श्री दिव्य चातुर्मास सत्संग में विष्णु पुराण में नित्यजीव, मुक्तजीव, बद्वजीव, केवलजीव, मुमुक्षुजीव का वर्णन किया।
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गुलाबपुरा (रामकिशन वैष्णव)स्थानीय सार्वजनिक धर्मशाला में चल रहे श्रीदिव्य चातुर्मास सत्संग महामहोत्सव में
श्रीमद् विष्णुमहापुराण ज्ञानयज्ञ कथा में कथा व्यास-श्री श्री 1008 महामंडलेश्वर श्री दिव्य मोरारी बापू ने नित्यजीव, मुक्तजीव,बद्धजीव,केवलजीव,
मुमुक्षुजीव के बारे में विस्तार से बताया। कथा व्यास बापू ने कहा कि नित्यजीव÷ नित्य जीव वे कहाते हैं। जिनको संसार का दुःख कभी न भोगना पड़ा हो। और जिन्होंने भगवान् के अनुकूल बना रहना ही अपना सुख समझा हो। और जो भगवान की आज्ञा से जगत के सृष्टि, पालन, संहार करने में समर्थ हों। अनेकानेक रूप में अपने स्वामी की सेवा करना जिनका स्वभाव है। जैसे- द्वारपाल गरुड़ जी,शेष जी।
2-मुक्तजीव÷ मुक्त जीव वो कहाते हैं जो भगवान की कृपा से प्रकृति के संबंध से पैदा हुए। अनेक प्रकार के दुःख जिनके दूर हो गये। और भगवान के स्वरूप रूप, गुण, माधुर्य, ऐश्वर्य, का अनुभव करने से प्रीति का प्रवाह उत्पन्न हो जाता है।वे अपनी वाणी से प्रभु की स्तुति करते रहते। प्रभु के गुणगान करने से कभी तृप्ति नहीं होती।भगवत गुण का अनुभव करने से ही उनको परमानंद और संतोष हो जाता है। और सदा बैकुंठ में निवास करते हैं। 3-बुद्धजीव÷ यह देह- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पांच महाभूतों से बना है। अनित्य है। और सुख-दुःख भोगने का साधन है। जब इसमें से आत्मा निकल जाती है। तब यह देखने और छूने के योग्य नहीं रहता। अशुद्धि का स्थान है। और अज्ञान, अन्यथा ज्ञान, विपरीत ज्ञान को पैदा करता है। ऐसे देह को ही जो आत्मा मानते हैं। और शाब्दिक विषय के अनुभव से अपने देह का पालन करना ही जिन्होंने पुरुषार्थ समझ रखा है। और विषयों के मिलने के वास्ते ही अपने वर्ण, आश्रम के धर्मों का नाश करके जो छूने लायक भी नहीं है, उसकी सेवा करके, अनेक प्राणियों की हिंसा करके, पराई स्त्री, पराया धन को जो ग्रहण करते हैं। ऐसे जीव अपने जन्म मरण रूप संसार को आपही बढ़ाते रहते हैं। इसी से ये बद्ध जीव कहाते हैं।
4- केवल जीव÷ मुझको ज्ञान से ही आत्म सुख मिला है और मेरे योग्य यही फल है। जो मैं अभी आत्मा को सुख रूप जानता हूं। बस इससे अधिक कुछ और सुख नहीं है। तब संसार से यह छूट जाता है। केवल प्राणी अपनी आत्मा के अनुभव में लगा रहता है। इसको आनंद निधि भगवत स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। संसार के त्याग से कोई साधु नहीं होता। कई बार हम संसार से नाराज होकर, हम कहते हैं हमारा कोई नहीं- पुत्र से नाराज हो पेपर में भी निकलवा देते हैं लेकिन इससे कोई साधु नहीं होता। साधु तो भगवत प्रेम से होता है। भय लोभ के कारण- पूजा-पाठ सत्कर्म जो हो, स्थाई नहीं होता। व्यास जी ने पुराणों में नर्क का भय या स्वर्ग का लोभ बताकर सत्कर्म में प्रेरित करना चाहा- असंतोष- नारद जी ने भगवत प्रेम का उपदेश दिए। प्रेम से जो कार्य किया जाता है, वो स्थाई है।
5- मुमुक्षु- जो जीव यह चाहते हैं हमारा मोक्ष हो जाये। वे जीव मुमुक्षु कहाते हैं। उनके दो भेद हैं। एक तो उपासक होते हैं दूसरे प्रपंच होते हैं। इस दौरान श्री दिव्य सत्संग कार्यक्रम के व्यवस्थापक घनश्यामदास महाराज, दिव्य सत्संग मंडल अध्यक्ष अरविंद माहेश्वरी सहित श्रद्धालु, भक्त जन मौजूद थे।