स्वाभिमानी संघर्ष
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शांत सा दिखता मगर हूं क्रुद्ध मैं।
लड़ रहा हूं रोज ही इक युद्ध मैं।।
आचरण की सीप से पोषित हुआ।
है मिलावट कुछ नहीं हूं शुद्ध मैं।।
हर चुनौती से बढ़ी ताकत सदा।
है विजय निश्चित रहा अनिरुद्ध मैं।।
सिंह शावक गड़रियों में पल रहा।
बुद्धओं के बीच भी हूं बुद्ध मैं।।
लग रही उम्मीद शायद कुछ करें।
आपके संभाषणों से लुब्ध मैं।।
हो न क्षति कोई रुका हूं इसलिए।
तेज तूफानी मगर अवरुद्ध मैं।।
शक्ति मंडेला अपरिमित है अभी।
बस व्यवस्था से जरा सा क्षुब्ध मैं।।
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रचयिता-कैलाश मण्डेला