धार्मिक विशेषताओं के साथ नवरात्रा में संपूर्ण प्रांगण में डेकोरेशन व्यवस्था से जगमगाता हुआ मंदिर।
राजेश शर्मा धनोप।
घट स्थापना के साथ 11 दिवसीय चैत्र नवरात्रि का आगाज::स्वप्न में दर्शन देने के बाद टीले की खुदाई में 7 बहनों के साथ प्रकट हुई धनोप माता।
–1100 वर्षों पुराना हैं धनोप माता मंदिर।
-1194 ई में पृथ्वीराज चौहान और जयचंद ने सभा मंडप और एकलिंग नाथ की कराई स्थापना।
-मंदिर में औघड़नाथ के कारण पुजारी नहीं लगाते साबुन।
– राजा धुन्धमार ने ताँबावती नगरी को दिया धनोप नाम।
– दाधीच पुजारी 22 पीढ़ियों से कर रहे सेवा पूजा।
चैत्र नवरात्रि को लेकर मंगलवार दोपहर 1:06 बजे से पूजा अर्चना प्रारंभ हुई जो 2:06 तक महाआरती के साथ संपन्न हुई। विधि विधान से घट स्थापना कर 11 दिवसीय चैत्र नवरात्रि महोत्सव और मेले का आगाज हुआ। पूजा अर्चना के बाद महाआरती हुई और भक्तो ने जयकारे लगाए। घट स्थापना कार्यक्रम में पुजारी रामप्रसाद पंडा, महावीर पंडा, बबलू पंडा, धर्मेंद्र पंडा तथा मंदिर ट्रस्ट अध्यक्ष सत्येंद्र सिंह राणावत सहित सैकड़ों श्रद्धालुओं ने माता के विशेष श्रृंगार के दर्शन किए। अमावस्या रात्रि से शिव डेकोरेशन फुलिया कला द्वारा डेकोरेशन से धनोप माता मंदिर को सजाया गया।
राजा धुन्धमार ने ताँबावती नगरी को दिया धनोप नाम। जिसकी पौराणिक जानकारी।
उपखण्ड क्षेत्र के प्राचीन शक्तिपीठ धनोप माताजी मंदिर 1100 वर्षो से भी पुराना हैं। जिसकी पुष्टि मंदिर में लगे शिलालेख से होती है।मंदिर में माता 7 मूर्तियों के रूप में विराजित हैं जो अष्टभुजा, अन्नपूर्णा, चामुंडा, बीसभुजा(महिषासुर मर्दिनी), एवं कालिका रूप में विराजित हैं।वहीं माता की 2 मूर्तियां श्रृंगार के अंदर विराजित हैं।
मंदिर निर्माण को लेकर कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं परंतु मंदिर में भैरूजी के समीप लगें गाय बछड़े के शिलालेख में विक्रम संवत 912 का उल्लेख हैं। जिससे अनुमान लगाया जा सकता हैं कि यह मंदिर विक्रम संवत 912 से पुराना हैं।
वर्तमान प्रधान पुजारी रामप्रसाद पंडा ने बताया कि उनके पूर्वज नागौर जिले के जायल तहसील के गोठ माँगलोद स्थित दधिमथी माता के पुजारी थे। जहां आकाल की स्थिति होने से वहां से वे तीन भाई अपने परिवार के साथ यहां आ गए। जब तालाब की पाल पर सो रहे थे तभी उनकी कुलदेवी दधिमथी माता सपने में आई और टीले पर दबी मूर्तियों को बाहर निकाल पूजा अर्चना करने के बारे में बताया। उसी समय राजा धुन्ध जो ताँबावती नगरी का राजा था उसे भी स्वप्न में दर्शन देकर बताया। साथ ही पुजारियों की भी जानकारी दी। राजा धुन्ध गाजे बाजे के साथ पुजारियों को लेकर टीले पर पहुंचे। थोड़ी खुदाई करने पर माता अपनी 7 बहनों के साथ प्रकट हुई
जो अष्टभुजा, अन्नपूर्णा, चामुंडा, बीसभुजा(महिषासुर मर्दिनी), एवं कालिका रूप में विराजित हैं। वहीं माता की 2 मूर्तियां श्रृंगार के अंदर विराजित हैं। माता के दर्शन श्रृंगार बिना वर्जित हैं। यहां प्रतिदिन नीम और आक को छोड़कर सभी तरह के वृक्षों की पत्तियों, एवं पुष्पों से माता का श्रृंगार होता हैं।
औघड़नाथ की भी पूजा-
मंदिर में औघड़नाथ भी विराजित हैं जिसके बारे में बताया जाता हैं कि इनकी स्थापना माताजी की स्थापना के साथ ही हुई थी। इसी कारण धनोप माता के पुजारी अपने ओसरे के दौरान अपने शरीर एवं वस्त्रों पर साबुन – सर्फ का उपयोग नहीं करते हैं।
मंदिर में एकलिंग नाथ भगवान-
मंदिर में भगवान शिव एकलिंग नाथ के रूप में विराजित हैं जिनकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान एवं राजा जयचंद द्वारा करवाई गई।
जो मंदिर सभामंडल में बाईं ओर स्थित हैं। जिसकी नित्य पुजारियों द्वारा माता के साथ ही पूजा अर्चना की जाती हैं। यह मंदिर क्षेत्र का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता हैं।मंदिर में लगे प्राचीन शिलालेख भी स्थित हैं जो धनोप माताजी मंदिर की स्थापना को प्राचीन बताते हैं।
*स्थानीय पुजारियों के अनुसार धनोप क्षेत्र ताँबावती नगरी के नाम से जाना जाता था। जहां के शासक राजा धुंध थे। जो राक्षस प्रवर्ति के बताए जाते हैं। जिनका अयोध्या के शासक राजा कुवलाश्व ने युद्ध के दौरान वध कर दिया। इसके बाद कुवलाश्व ताँबावती नगरी के राजा बने। जो धुँधमार के नाम से प्रसिद्ध हुए। राजा कुवलाश्व के पुत्र मांधाता हुए। राजा मांधाता ने धनोप माता मंदिर की स्थापना की।*
पुजारी एवं मंदिर कमेटी ट्रस्ट के सदस्य कैलाश चंद्र पंडा ने बताया कि
पूर्वजो द्वारा सुनी सुनाई जानकारी के अनुसार अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान, मोहम्मद गोरी से युद्ध कर लौटते समय इसी स्थान पर अपने विरोधी एवं संयोगिता के पिता कन्नौज के शासक जयचंद के मध्य संधी हुई। जिसके पश्चात दोनों ने माताजी की पूजा अर्चना की। इसके पश्चात मंदिर परिसर में एकलिंग भगवान (शिव) की स्थापना करवाई एवं राजा जयचंद ने सभा मंडप का निर्माण कराया।
सालो पहले यहां आकर बसे नागोर के दाधीच ब्राम्हणों करते हैं पूजा अर्चना।
वर्तमान में दाधीच ब्राह्मण मंदिर के पुजारी हैं। जो मूलतः नागौर जिले के निवासी बताए जाते हैं।
जो करीब 22 वी पीढी पूर्व दधिमथी माताजी मंदिर गोठ मांगलोद(नागौर) के पुजारी थे। मारवाड़ क्षेत्र में अकाल की स्थिति होने से उनका जीवन यापन करना मुश्किल हो गया। तब दधिमथी मंदिर पुजारी दाधीच ब्राह्मणों ने पुष्कर के पाराशर ब्राह्मणों को दधिमथी माताजी की सेवा पूजा संभाला कर पलायन कर लिया।घूमते हुए यहां पहुंचे। तब उनकी कुलदेवी माता दधिमथी ने बाल रूप में दर्शन देकर स्थापित देवी मंदिर की पूजा करने के लिए बोला। और इसी स्थान पर बसने के लिए बोला।
इसके बाद से आज तक वहीं दाधीच परिवार पूजा अर्चना कर रहा हैं।
धनोप गांव में खुदाई के दौरान कई प्राचीन वस्तुएं, मूर्तियां और सिक्के निकलते हैं। पिछले दिनों निकले चांदी के सिक्कों पर राजा का ऊर्ध्व चित्र व दूसरी ओर अग्निवेदी या सिंहासन के चित्र छपे हैं। जिन्हें चलाने का श्रेय हूण शासकों को दिया जाता हैं।