*ये कैसी वोटो की मजबूरी,हर बात पर क्यों कराते बाजार बंद*
*व्यापारियों व दिहाड़ी कामगारों के नुकसान की भरपाई करेगा कौन*
*बात मन की- निलेश कांठेड़*
कहने को हमारे भारत राष्ट्र को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्त होकर आजाद हुए 77 वर्ष पूर्ण हो चुके है। तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जल्द बन जाने के ख्वाब भी देखे ओर दिखाए जा रहे है। आर्थिक प्रगति के दावों के बीच राष्ट्रहित पर वोटों के सौदागरों की दलगत राजनीति का कुचक्र भारी पड़ रहा है। जिस व्यापार जगत को देश की प्रगति की रीढ़ माना जाता है वह राजनीतिक स्वार्थो के चक्रव्यूह में पिस रहा है। किसी भी राजनीतिक दल, जाति, समाज या संगठन को कोई आदेश या फरमान पसंद नहीं आता ओर गुस्सा जाहिर करना होता है तो उसके निशाने पर बाजार आ जाते है। यानि विरोध दर्ज कराने की पहली सीढ़ी बाजार बंद कराने को मान लिया जाता है। वह यह मान लेते है कि बाजार बंद करा दिए तो हमारा विरोध प्रदर्शन सफल हो गया। उन्हें यह कौन समझाए कि वह जिन मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे उनका बाजार से क्या सम्बन्ध है। किसानों को सरकार से नाराजगी है तो बाजार बंद, दो अलग-अलग समुदायों के व्यक्तियों में निजी कारणों से विवाद हो गया तो बाजार बंद, कोर्ट का कोई फैसला रास नहीं आया तो बाजार बंद, सरकार का कोई निर्णय रास नहीं आया तो भी बाजार बंद का ऐलान हो जाता है। हर आंदोलनकारी का सॉफ्ट टॉरगेट बाजार बन गए है। हर वर्ष औसतन पांच-पन्द्रह दिन तो बाजार बंद के आह्वान हो ही जाते है। एक दिन बाजार बंद रखने से उस नगर, राज्य व देश को आर्थिक कितना नुकसान होता है ओर कितने दिहाड़ी मजदूरों व खोमचो-ठेले वाले गरीबों की रोजी रोटी संकट में पड़ती है इस बात से सरकार से लेकर प्रशासन ओर राजनीतिक दलों से लेकर बंद के समर्थकों तक का कोई सरोकार नहीं लगता। कोई भी आंदोलन हो सरकार से मांगे मनवाने का आसान रास्ता बाजार बंद कराना ओर रास्ते रोकना नजर आता है। सरकार विरोधी दल बंद कराने वालों की मांगे राष्ट्र व प्रदेश हित मे नहीं है ये जानते हुए भी राजनीतिक लाभ पाने की मंशा से समर्थन का एलान कर देते है। हमारे देश मे गलत फैसलों को निरस्त कराने ओर पुर्नविचार के लिए पूरा सरकारी व न्यायिक सिस्टम बना हुआ है लेकिन लगता है उस पर किसी का भरोसा नहीं रह गया है ओर सबको मांगे मनवाने का आसान शॉर्ट कर्ट व्यापारी ओर दिहाड़ी मजदूर के पेट पर लात मारते हुए बाजार बंद कराना लगता है। कई बार तो आश्चर्य होता है जिन मामलों से व्यापारी का कोई लेनादेना ही नहीं होता उसके लिए भी उस पर प्रतिष्ठान बंद रखने का दबाव बनाया जाता है। कानून का राज होने का ढिंढोरा पीटने वाले राजनीतिक दल ओर सरकारी प्रशासनिक तंत्र भी लाठी ओर मारपीट के जोर पर बंद कराने वालों के सामने लाचार बन जाते है ओर वह भी बाजार में प्रतिष्ठान बंद नहीं करने वालों को संरक्षण देने की बजाय उनको नुकसान हो जाने का भय दिखा बंद कर देने के लिए दबाव बनाते है। समझ में ही नहीं आता सरकार की जिम्मेदारी बंद कराने वालों से बचाने की है या बंद सफल बनाने में सहयोगी बनने की है। पुलिस भी कानून व्यवस्था न बिगड़ जाए इस डर से व्यापारी को यहीं नसीहत यही देती नजर आती है कि मामला बिगड़ रहा है बंद रखने में ही भलाई है अन्यथा जान माल का नुकसान हो सकता है। चुनावों के समय व्यापारियों व मजदूरों को रोजी रोटी की सुरक्षा के भरोसा दिलाने वाले वोटो के सौदगर हमारे राजनेता भी ऐसे मौको पर अधिकतर गायब ही नजर आते है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि एक दिन व्यापार बंद रखने से केवल व्यापारी को ही नुकसान नहीं होता बल्कि उस व्यापार से जिन गरीबों का पेट भर रहा उन गरीब परिवारों के लिए भी उस दिन दो रोटी जुटाना मुश्किल हो जाता है। प्रदर्शन करने वालों या बंद समर्थकों का व्यापारी से भी पहले कहर सड़कों पर खोमचे लगाने वालों या फल-सब्जी के ठेले लगाने वाले गरीबों पर टूटता है। बंद के नाम पर उनका रोजगार छिन लिया जाता है। उसकी भरापाई करने वाला कोई नहीं होता। व्यापार संगठनों को भी सोचना होगा कि आखिर कब तक हर किसी आह्वान पर अपने प्रतिष्ठानों के शटर डाउन करते रहेंगे। उन्हें एकजुट होकर सरकार व न्यायिक तंत्र से सुरक्षा मांगनी होगी। आमजन को भी बंद समर्थकों के कहर से निर्दोष व्यापारी को बचाने के लिए उसका ढाल बनकर साथ देना होगा। बंद कराने वालों को भी अपनी ताकत लाचार व्यापारी व मजदूरों के समक्ष दिखाने की बजाय सरकारी हुक्मरानों के समक्ष दिखानी चाहिए। ये सुनिश्चित होना चाहिए कि किसी भी मुद्दे पर विरोध दर्ज कराने का माध्यम बाजार बंद कराना नहीं होगा। आंदोलनकारी मांगे मनवाने के लिए सरकारी कार्यालयों व थानों के बाहर चाहे जितने धरना दे, प्रदर्शन करे, न्यायिक लड़ाई लड़े कोई विरोध नहीं है लेकिन बाजार बंद नहीं कराए। बाजार बंद कराने से हासिल कुछ नहीं होता पर नुकसान जो होता उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम सच्चे देशभक्त है ओर राष्ट्र की प्रगति में सहभागी बनना चाहते है तो आंदोलन के लिए बाजार बंद कराने की घटिया राजनीति का त्याग करना ही होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो विकसित भारत का सपना कागजी दस्तावेजों से बाहर निकल हकीकत नहीं बनने वाला है।
*स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक*
पूर्व चीफ रिपोर्टर,राजस्थान पत्रिका,भीलवाड़ा