*आधुनिकता के नाम पर पॉलीथिन-प्लास्टिक का लगा रहे ढेर, पौधे लगाने के नाम पर खानापूर्ति*
*पर्यावरण जागरूकता व संरक्षण के नाम पर हमारा दोहरा चरित्र बढ़ा रहा खतरा*
*निलेश कांठेड़*
पिछले कुछ वर्षो से विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर सोशल मीडिया पर इससेे जुड़े संदेशों व इसके नाम पर हुए आयोजनों के वीडियो व इमेज की भरमार होती है। नेता हो या अधिकारी, समाजसेवी हो या सामाजिक संगठन हर कोई स्वयं को पर्यावरण प्रेमी व संरक्षक साबित करने का जी तोड़ प्रयास करते दिखते है। कोई पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पौधे लगाकर तो कोई पर्यावरण जागरूकता के नाम पर गोष्ठियां व दौड़ कराके पर्यावरण दिवस मनाने की रस्म निभाते है। हम पर्यावरण दिवस मनाने या इसके नाम पर कार्यक्रम आयोजन के खिलाफ नहीं है लेकिन वर्ष में एक दिन पर्यावरण संरक्षण के लिए चिंता जताने और शेष 364 दिन पर्यावरण को बिगाड़ने वाले कार्य करने की दोहरी सोच नुकसानदायी है। जो राजनेता, अधिकारी व समाजसेवी स्वयं को पर्यावरण संरक्षक व हितेषी बताते है वह रूटीन लाइफ में कितना पर्यावरण फ्रेण्डली है ये वह खुद जानते है। एक तरफ हम पौधे लगाते है और दूसरी तरफ अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए वर्षो पहले लगे पेड़ो को जड़ से उखाड़ने में भी संकोच नहीं करते। जिन पौधो को हम लगा रहे उनकी सुरक्षा कौन व कैसे करेगा ये सुनिश्चित हो जाए तो शायद हर वर्ष पौधे लगाने की जरूरत ही नहीं पड़े। हर वर्ष मानसून सीजन और पर्यावरण दिवस जैसे अवसरों पर सड़कों के किनारे या पार्क व सार्वजनिक स्थलों पर कई पौधे उन्हीं जगह लगाए जाते है जहां पहले भी लग चुके होते है। पहले लगे पौधे कहां गए इसका जवाब खोजने की जहमत उठाए बिना हम नए पौधे लगा उसके साथ सेल्फी या फोटो लेने में जुट जाते है। पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर दिखावा प्रवृति से पर्यावरण संरक्षित होने की बजाय गहरे संकट में है। हम ही है जो शादियां हो या कोई सामाजिक आयोजन उनमें डिस्पोजबल के नाम पर प्लास्टिक का ढेर लगा धरती पर कचरे का ढेर लगाने से बाज नहीं आते। एक तरफ पर्यावरण संरक्षण के नाम पर लंबे भाषण देते है और दूसरी ओर वो कृत्य करते है जो पर्यावरण को संकट में डाल रहे है। उदाहरण के लिए शादी समारोह या अन्य शुभ अवसरों पर प्यास बुझाने के नाम पर पानी की छोटी-छोटी प्लास्टिक बोतलो के बढ़ते उपयोग की चर्चा कर सकते है। शादी में औसतन एक मेहमान 15-20 ऐसी बोतले पानी पीकर कचरे के ढेर में फेंक देता है। ये धरती का बोझ बढ़ा रहा वह कचरा है जो एकत्रित करना हमारी मजबूरी नहीं है और हम चाहे तो कैन या मटके रख लौटे-गिलासों का उपयोग कर भी अपनी प्यास बुझाव सकते है। ये बात हम सभी जानते और समझते है लेकिन फिर भी आधुनिकता के नाम पर हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में ऐसी प्लास्टिल बोतलों व प्लास्टिक सामग्री का ढेर हमारे दोहरे चरित्र को उजागर करता है। पहले सफर में पानी की बोतल घर से साथ में लेकर निकलते थे लेकिन अब सफर शुरू होते पहला काम पानी की एक-दो लीटर की बोतल खरीदने का करते है और लंबा सफर होने पर दो-तीन बोतल एक ही व्यक्ति खाली कर फेंक देता है। यहां भी हम चाहे तो घर से वाटर बोटल ले जाकर इन डिस्पोजबल बोतलों को खरीदने से बच सकते है। सरकारी तंत्र ने कई तरह की पॉलीथिन थैलियों की बिक्री व उपयोग पर कागजों में प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन हकीकत में सरकारी कार्यालयों से लेकर सब्जी मण्डी तक हर जगह ऐसी पॉलीथिन का धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। ऐसी थैलियां कचरे में पहुंच वहां से हमारी गौमाता के पेट में पहुंच रही है लेकिन हम फिर भी अपनी जिंदगी से इनको दूर नहीं कर पा रहे है। हमारा पर्यावरण दिवस मनाना कोरी भाषणबाजी करने, हाथ लंबे कर संकल्प लेने या एक पौधे के साथ आठ-दस लोगों के फोटो खिचवाने से सार्थक नहीं हो सकता और न ही इससे पर्यावरण पर मंडरा रहे खतरे की भीषणता कम होने वाली है। यदि हमे वास्तव में अपने पर्यावरण की चिंता है तो संकल्प ले कि जहां लौटे व गिलास से काम चल सकता वहां डिस्पोजबल बोतलों व सामग्री का उपयोग नहीं करेंगे। पौधे लगाएगे भले कम लेकिन जो लगाएगे उसकी सुरक्षा का दायित्व तय करेंगे। हम नहीं सुधरे और खानापूर्ति ही करते रहे तो आने वाला समय अत्यंत कठिन होगा और हमारे भले कितनी बड़ी आर्थिक ताकत बन जाए लेकिन शुद्ध हवा में सांस लेना व जल मिलना दुर्लभ होगा।
*स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक*
पूर्व चीफ रिपोर्टर, राजस्थान पत्रिका, भीलवाड़ा
मो. 9829537627